(लेख बी. जयमोहन जी
की कलम से)
‘सत्ता’ का असली अर्थ मुझे तब समझ में आया जब दिल्ली में मुझे 1994 में “संस्कृति सम्मान” पुरस्कार मिला .वहां स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) में मैं दो दिनों तक रुका था.वैसे भी सूचना और संस्कृति मंत्रालयों से मेरा जुडाव तो था ही ,परन्तु इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) वो जगह है जहाँ सत्ता सोने की चमकती थालियों में परोसी जाती है.
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) एक शांत, और भव्य बंगले में स्थित है जिसमे हरे भरे लॉन , उच्च स्तरीय खाने और पीने की चीजों के साथ शांति से घूमते हुए वेटर हैं , ऊपर वाले होंठो को बगैर पूरा खोले ही मक्खन की तरह अंग्रेजी बोलने वाले लोग हैं , लिपिस्टिक वाले होठों के साथ सौम्यता से बालों को सुलझाती हुई महिलायें हैं, जो बिना शोर किये हाथ हिलाकर या गले मिलकर शानदार स्वागत करते हैं.
मैं अब तक कई अच्छे होटलों में रुक चूका हूँ लिकिन IIC जैसी सुविधा मुझे अब तक किसी जगह देखने को नहीं मिली.
भारत सरकार द्वारा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) की स्थापना एक स्वायत्त संस्था के रूप में स्वछन्द विचारधारा और संस्कृति के के उत्थान के लिए की गयी. और जहाँ तक मेरी याददाश्त ठीक है तो मुझे याद हैं की मैं उस शाम डॉ करन सिंह जो इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) के प्रमुख रह चुके हैं ,उनसे मिला था.
मैंने उन सब बुद्धिजीवियों को वहा देखा जिनके बारे में मैं अंग्रेजी साहित्य और पत्रिकाओं के माध्यम से जानता था. यू.आर.अनंतमूर्ति वहां पिछले चार सालो से एक स्थायी स्तम्भ की तरह जमे हुए थे . गिरीश कर्नाड वहां कुछ दिनों से रह रहे थे. प्रीतिश नंदी, मकरंद परांजपे , शोभा डे जैसे जाने कितने लेखक ,पत्रकार और विचारक IIC के कोने कोने में दिख रहे थे .
ये सच है की उस दिन मैं बिलकुल ही अभिभूत था . गिरीश कर्नाड को देखते ही मेरी अर्धांगिनी अरुनमोझी दौड़ के उनके पास गयीं थीं और उनको अपना परिचय दिया था .मुझे पता चला की नयनतारा सहगल यहाँ प्रतिदिन “ड्रिंक करने” के लिए आया करतीं थीं. मैंने उस दिन भी उन्हें देखा था .साथ ही मुझे ये भी महसूस हुआ कि राजदीप सरदेसाई और अनामिका हकसार भी , जिन्हें मेरे साथ ही पुरस्कार दिया गया था , वहां रोजाना आने वालों में से ही थे.
बंगाली कुरता और कोल्हापुरी चप्पलें पहने हुए इन लोगों की आँखों पर छोटे छोटे शीशे वाले चश्मे थे .सफ़ेद बालों और खादी साड़ियों में लिपटी महिलाओ में से एक की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने बताया था की ये कपिला वात्स्यायन हैं .उन्होंने ये भी बताया था की पुपुल जयकार भी आयेंगी . जिधर भी मुड़ो वहां बस साहित्यिक बाते और कला से सम्बंधित वार्तालाप ही नजर आ रहे थे .
इस जलसे से मुझे थोड़ी सिहरन सी होने लगी थी ,वहां की अत्याधुनिक बुद्धिजीविता के दर्शन ने मुझे अलग थलग सा कर दिया .वेंकट स्वामीनाथन जिनसे उसके अगले दिन मुलाकात हुई थी उन्होंने मेरी बेचैनी के भाव को भांप लिया. उन्होंने कहा –“ इस भीड़ का तीन चौथाई भाग महज कौवों का झुण्ड है. विभिन्न “पॉवर सेंटर्स “ के पैरों तले रहकर ये अपना जीवन निर्वाह करते हैं. इसमें से ज्यादातर लोग सिर्फ सत्ता के दलाल हैं . बड़ी कोशिश इतने सारे लोंगों में से सम्मान और आदर के लायक सिर्फ एक या दो लोग ही मिलेंगे और ये लोग इस वातावरण को सहन न कर पा सकने की स्थिति में स्वयं कुछ देर बाद यहाँ से निकल लेंगे."
लेकिन ये वो लोग हैं हैं जो हमारे देश की संस्कृति का निर्धारण करते हैं .एक निश्चित शब्दजाल का प्रयोग करते हुए ये किसी भी विषय पर रंगीन अंग्रेजी में घंटे भर तो बोलते हैं परन्तु इकसाठवें मिनट में ही इनका रंग फीका पड़ना शुरू हो जाता है .
वास्तव में ये किसी चीज के बारे में कुछ नहीं जानते”. वेंकट स्वामीनाथन ने कहा. “ सेवा संस्थानों और सांस्कृतिक संस्थानों के नाम इनके पास चार पांच ट्रस्ट होते हैं और ये उसी के सम्मेलनों में भाग लेने के लिए इधर उधर ही हवाई यात्रायें करते रहते हैं. एक बार कोई भी सरकारी सुविधा या आवास मिलने के बाद इन्हें वहां से कभी नहीं हटाया जा सकता .अकेले दिल्ली में करीब पांच हज़ार बंगलो पर इनके अवैध कब्जे हैं.और दिल्ली में ही इनकी तरह एक और पॉवर सेण्टर JNU भी है. वहां की भी कहानी यही है .”
तो सरकार खुद इन्हें हटाती क्यों नहीं ? मैंने कहा .उन्होंने कहा “पहली बात तो सरकार इस बारे में सोचती ही नहीं .क्यों की नेहरू के ज़माने से ही ये लोग इसे चिपके हुए हैं .ये लोग एक दुसरे का सपोर्ट करते हैं.अगर कभी किसी आईएएस अधिकारी ने इन्हें हटाने की कोशिश भी की तो ये सत्ताधारी लोगों के पैर पकड लेते हैं और बच जाते हैं”.
“इसके अलावा एक और बात है” . वेंकट स्वामीनाथन ने कहा. “ये महज एक परजीवी ही नहीं हैं अपितु स्वयं को प्रगतिशील वामंथी कहकर अपनी शक्ति का निर्धारण करते हैं “ आपने देखा की नहीं. “हाँ”- मैंने आश्चर्य चकित होते हुए कहा.
“दुनिया भर में विभिन्न प्रकार के सेमीनार में उपस्थित होने के कारण ये दुनिया भर में जाने जाते हैं .ये बहुत ही अच्छे तरीके से एक दुसरे के साथ बंधे हुए हैं .दुनिया भर के पत्रकार भारत में कुछ भी होने पर इनकी राय मांगते हैं .इन्ही लोगों ने ही कांग्रेस को एक वामपथी आवरण दे रखा है, उस हिसाब से अगर आप देखते है तो इन पर खर्च की गयी ये धनराशि तो बहुत ही कम है.”उन्होंने कहा. “ये सरकार के सिर पर बैठे हुए जोकर की तरह हैं और कोई भी इनका कुछ नहीं कर सकता. और ये भारत की कला , संस्कृति और सोच का निर्धारण करते हैं.”
मैं अपने मलयालम पत्रकार मित्रों के साथ अकसर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) में रहा हूँ .उनके लिए लिए IIC अफवाहों को उठाकर “न्यूज” में बदल देने वाली जगह है. इसमें कोई रहस्य नहीं कि शाम ढलते ही इनके अन्दर अल्कोहल इनके सर चढ़कर बोलता है.
लेकिन मुझे उन लोगों पर दया आती है जो इन “बुद्धिजीवियों” द्वारा किसी अंग्रेजी अखबार के बीच वाले पेज पर परोसे गए “ ज्ञान के रत्नों” पर हुई राजनैतिक बहस में भागीदारी करते हैं.इन बुद्धिजीवियों को वास्तव में वास्तविक राजनीति का जरा भी ज्ञान नहीं होता . ये बस अपने उथले ज्ञान के आधार पर जरुरत से ज्यादा चिल्लाते हैं और अपने नेटवर्क द्वारा प्रदत्त स्थान में मुद्दे उठाते हैं. बस .
इनके बारे में लिखते हुए जब मैंने ये कहा की बरखा दत्त और कोई नहीं बल्कि एक दलाल है सत्ता की , तो मेरे अपने ही मित्र मुझसे एक “प्रगतिशील योद्धा” की छवि आहत करने को लेकर झगड़ बैठे.पर मेरा सौभाग्य था की कुछ दिन के अन्दर ही बरखा दत्त की टाटा के साथ की गयी दलाली नीरा रडिया टेप के लीक होने पर प्रकाश में आई(इस केस का क्या हुआ .क्या किसी को पता है ?). ऐसे भीषण खुलासे भी बरखा दत्त को उसके पद से एक महीने के लिए भी नहीं हटा सके .ये स्तर है इनके शक्ति का .
लेकिन अब , स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार किसी ने इस चक्रव्यूह को तोड़ने की हिमाकत की है .चेतावनियाँ पिछले छह महीने से ही इन्हें दी जाती रही है.पिछले हफ्ते सांस्क्रतिक मंत्रालय ने इन्हें नोटिस भेजने का निश्चय किया.इन बुद्धिजीवियों द्वारा “असहिष्णुता” की आग फैलाने का कारण यही है शायद.
उदाहरण के लिए पेंटर जतिन दास, जो की बॉलीवुड एक्टर नंदिता दास के पिता हैं ,इन्होने पिछले कई सालों से दिल्ली के जाने माने एरिये में एक सरकारी बंगले पर कब्ज़ा कर रखा है.सरकार ने उन्हें बंगले को खाली करने का नोटिस दे दिया .यही कारण हैं की नादिता दास लगातार अंग्रजी चैनलों पर असहिष्णुता के ऊपर बयानबाजी कर रही है और अंग्रेजी अखबारों (जो की इन लोगों के नेटवर्क द्वारा ही पोषित है ) में कॉलम लिख रही हैं .
मोदी जैसे एक मजबूत आदमी , ने भी मुझे लगता है की गलत रँग पर हाथ रख दिया है.ये तथाकथित बुद्धिजीवी बेहद शक्तिशाली तत्व हैं.मीडिया के द्वारा ये भारत को नष्ट कर सकते हैं .ये पूरी दुनिया की नजर में ये ऐसा दिखा सकते हैं कि जैसे भारत में खून की नदियाँ बह रही हों .ये विश्व के बिजनेसमैन लॉबी को भारत में निवेश करने से रोक सकते हैं.टूरिस्म इंडस्ट्री को बर्बाद कर सकते हैं .सच्चाई ये है की इनके जैसी भारत में कोई दूसरी शक्ति ही नहीं हैं .भारत के लिए इनको सहन करना अनिवार्य है. और इनके प्रति मोदी जी की असहिशुणता बेहद खतरनाक है ..सिर्फ उनके लिए ही नहीं बल्कि देश के लिए भी.
(नागर कोल के रहने वाले बी. जयमोहन जी एक जाने माने साहित्य आलोचक, समकालीन तमिल और मलयालम साहित्य के बेहद प्रभावशाली लेखकों में से एक हैं. “असहिष्णुता” पर लिखे उनके एक लेख का ये हिन्दी अनुवाद है।)
की कलम से)
‘सत्ता’ का असली अर्थ मुझे तब समझ में आया जब दिल्ली में मुझे 1994 में “संस्कृति सम्मान” पुरस्कार मिला .वहां स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) में मैं दो दिनों तक रुका था.वैसे भी सूचना और संस्कृति मंत्रालयों से मेरा जुडाव तो था ही ,परन्तु इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) वो जगह है जहाँ सत्ता सोने की चमकती थालियों में परोसी जाती है.
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) एक शांत, और भव्य बंगले में स्थित है जिसमे हरे भरे लॉन , उच्च स्तरीय खाने और पीने की चीजों के साथ शांति से घूमते हुए वेटर हैं , ऊपर वाले होंठो को बगैर पूरा खोले ही मक्खन की तरह अंग्रेजी बोलने वाले लोग हैं , लिपिस्टिक वाले होठों के साथ सौम्यता से बालों को सुलझाती हुई महिलायें हैं, जो बिना शोर किये हाथ हिलाकर या गले मिलकर शानदार स्वागत करते हैं.
मैं अब तक कई अच्छे होटलों में रुक चूका हूँ लिकिन IIC जैसी सुविधा मुझे अब तक किसी जगह देखने को नहीं मिली.
भारत सरकार द्वारा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) की स्थापना एक स्वायत्त संस्था के रूप में स्वछन्द विचारधारा और संस्कृति के के उत्थान के लिए की गयी. और जहाँ तक मेरी याददाश्त ठीक है तो मुझे याद हैं की मैं उस शाम डॉ करन सिंह जो इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) के प्रमुख रह चुके हैं ,उनसे मिला था.
मैंने उन सब बुद्धिजीवियों को वहा देखा जिनके बारे में मैं अंग्रेजी साहित्य और पत्रिकाओं के माध्यम से जानता था. यू.आर.अनंतमूर्ति वहां पिछले चार सालो से एक स्थायी स्तम्भ की तरह जमे हुए थे . गिरीश कर्नाड वहां कुछ दिनों से रह रहे थे. प्रीतिश नंदी, मकरंद परांजपे , शोभा डे जैसे जाने कितने लेखक ,पत्रकार और विचारक IIC के कोने कोने में दिख रहे थे .
ये सच है की उस दिन मैं बिलकुल ही अभिभूत था . गिरीश कर्नाड को देखते ही मेरी अर्धांगिनी अरुनमोझी दौड़ के उनके पास गयीं थीं और उनको अपना परिचय दिया था .मुझे पता चला की नयनतारा सहगल यहाँ प्रतिदिन “ड्रिंक करने” के लिए आया करतीं थीं. मैंने उस दिन भी उन्हें देखा था .साथ ही मुझे ये भी महसूस हुआ कि राजदीप सरदेसाई और अनामिका हकसार भी , जिन्हें मेरे साथ ही पुरस्कार दिया गया था , वहां रोजाना आने वालों में से ही थे.
बंगाली कुरता और कोल्हापुरी चप्पलें पहने हुए इन लोगों की आँखों पर छोटे छोटे शीशे वाले चश्मे थे .सफ़ेद बालों और खादी साड़ियों में लिपटी महिलाओ में से एक की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने बताया था की ये कपिला वात्स्यायन हैं .उन्होंने ये भी बताया था की पुपुल जयकार भी आयेंगी . जिधर भी मुड़ो वहां बस साहित्यिक बाते और कला से सम्बंधित वार्तालाप ही नजर आ रहे थे .
इस जलसे से मुझे थोड़ी सिहरन सी होने लगी थी ,वहां की अत्याधुनिक बुद्धिजीविता के दर्शन ने मुझे अलग थलग सा कर दिया .वेंकट स्वामीनाथन जिनसे उसके अगले दिन मुलाकात हुई थी उन्होंने मेरी बेचैनी के भाव को भांप लिया. उन्होंने कहा –“ इस भीड़ का तीन चौथाई भाग महज कौवों का झुण्ड है. विभिन्न “पॉवर सेंटर्स “ के पैरों तले रहकर ये अपना जीवन निर्वाह करते हैं. इसमें से ज्यादातर लोग सिर्फ सत्ता के दलाल हैं . बड़ी कोशिश इतने सारे लोंगों में से सम्मान और आदर के लायक सिर्फ एक या दो लोग ही मिलेंगे और ये लोग इस वातावरण को सहन न कर पा सकने की स्थिति में स्वयं कुछ देर बाद यहाँ से निकल लेंगे."
लेकिन ये वो लोग हैं हैं जो हमारे देश की संस्कृति का निर्धारण करते हैं .एक निश्चित शब्दजाल का प्रयोग करते हुए ये किसी भी विषय पर रंगीन अंग्रेजी में घंटे भर तो बोलते हैं परन्तु इकसाठवें मिनट में ही इनका रंग फीका पड़ना शुरू हो जाता है .
वास्तव में ये किसी चीज के बारे में कुछ नहीं जानते”. वेंकट स्वामीनाथन ने कहा. “ सेवा संस्थानों और सांस्कृतिक संस्थानों के नाम इनके पास चार पांच ट्रस्ट होते हैं और ये उसी के सम्मेलनों में भाग लेने के लिए इधर उधर ही हवाई यात्रायें करते रहते हैं. एक बार कोई भी सरकारी सुविधा या आवास मिलने के बाद इन्हें वहां से कभी नहीं हटाया जा सकता .अकेले दिल्ली में करीब पांच हज़ार बंगलो पर इनके अवैध कब्जे हैं.और दिल्ली में ही इनकी तरह एक और पॉवर सेण्टर JNU भी है. वहां की भी कहानी यही है .”
तो सरकार खुद इन्हें हटाती क्यों नहीं ? मैंने कहा .उन्होंने कहा “पहली बात तो सरकार इस बारे में सोचती ही नहीं .क्यों की नेहरू के ज़माने से ही ये लोग इसे चिपके हुए हैं .ये लोग एक दुसरे का सपोर्ट करते हैं.अगर कभी किसी आईएएस अधिकारी ने इन्हें हटाने की कोशिश भी की तो ये सत्ताधारी लोगों के पैर पकड लेते हैं और बच जाते हैं”.
“इसके अलावा एक और बात है” . वेंकट स्वामीनाथन ने कहा. “ये महज एक परजीवी ही नहीं हैं अपितु स्वयं को प्रगतिशील वामंथी कहकर अपनी शक्ति का निर्धारण करते हैं “ आपने देखा की नहीं. “हाँ”- मैंने आश्चर्य चकित होते हुए कहा.
“दुनिया भर में विभिन्न प्रकार के सेमीनार में उपस्थित होने के कारण ये दुनिया भर में जाने जाते हैं .ये बहुत ही अच्छे तरीके से एक दुसरे के साथ बंधे हुए हैं .दुनिया भर के पत्रकार भारत में कुछ भी होने पर इनकी राय मांगते हैं .इन्ही लोगों ने ही कांग्रेस को एक वामपथी आवरण दे रखा है, उस हिसाब से अगर आप देखते है तो इन पर खर्च की गयी ये धनराशि तो बहुत ही कम है.”उन्होंने कहा. “ये सरकार के सिर पर बैठे हुए जोकर की तरह हैं और कोई भी इनका कुछ नहीं कर सकता. और ये भारत की कला , संस्कृति और सोच का निर्धारण करते हैं.”
मैं अपने मलयालम पत्रकार मित्रों के साथ अकसर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) में रहा हूँ .उनके लिए लिए IIC अफवाहों को उठाकर “न्यूज” में बदल देने वाली जगह है. इसमें कोई रहस्य नहीं कि शाम ढलते ही इनके अन्दर अल्कोहल इनके सर चढ़कर बोलता है.
लेकिन मुझे उन लोगों पर दया आती है जो इन “बुद्धिजीवियों” द्वारा किसी अंग्रेजी अखबार के बीच वाले पेज पर परोसे गए “ ज्ञान के रत्नों” पर हुई राजनैतिक बहस में भागीदारी करते हैं.इन बुद्धिजीवियों को वास्तव में वास्तविक राजनीति का जरा भी ज्ञान नहीं होता . ये बस अपने उथले ज्ञान के आधार पर जरुरत से ज्यादा चिल्लाते हैं और अपने नेटवर्क द्वारा प्रदत्त स्थान में मुद्दे उठाते हैं. बस .
इनके बारे में लिखते हुए जब मैंने ये कहा की बरखा दत्त और कोई नहीं बल्कि एक दलाल है सत्ता की , तो मेरे अपने ही मित्र मुझसे एक “प्रगतिशील योद्धा” की छवि आहत करने को लेकर झगड़ बैठे.पर मेरा सौभाग्य था की कुछ दिन के अन्दर ही बरखा दत्त की टाटा के साथ की गयी दलाली नीरा रडिया टेप के लीक होने पर प्रकाश में आई(इस केस का क्या हुआ .क्या किसी को पता है ?). ऐसे भीषण खुलासे भी बरखा दत्त को उसके पद से एक महीने के लिए भी नहीं हटा सके .ये स्तर है इनके शक्ति का .
लेकिन अब , स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार किसी ने इस चक्रव्यूह को तोड़ने की हिमाकत की है .चेतावनियाँ पिछले छह महीने से ही इन्हें दी जाती रही है.पिछले हफ्ते सांस्क्रतिक मंत्रालय ने इन्हें नोटिस भेजने का निश्चय किया.इन बुद्धिजीवियों द्वारा “असहिष्णुता” की आग फैलाने का कारण यही है शायद.
उदाहरण के लिए पेंटर जतिन दास, जो की बॉलीवुड एक्टर नंदिता दास के पिता हैं ,इन्होने पिछले कई सालों से दिल्ली के जाने माने एरिये में एक सरकारी बंगले पर कब्ज़ा कर रखा है.सरकार ने उन्हें बंगले को खाली करने का नोटिस दे दिया .यही कारण हैं की नादिता दास लगातार अंग्रजी चैनलों पर असहिष्णुता के ऊपर बयानबाजी कर रही है और अंग्रेजी अखबारों (जो की इन लोगों के नेटवर्क द्वारा ही पोषित है ) में कॉलम लिख रही हैं .
मोदी जैसे एक मजबूत आदमी , ने भी मुझे लगता है की गलत रँग पर हाथ रख दिया है.ये तथाकथित बुद्धिजीवी बेहद शक्तिशाली तत्व हैं.मीडिया के द्वारा ये भारत को नष्ट कर सकते हैं .ये पूरी दुनिया की नजर में ये ऐसा दिखा सकते हैं कि जैसे भारत में खून की नदियाँ बह रही हों .ये विश्व के बिजनेसमैन लॉबी को भारत में निवेश करने से रोक सकते हैं.टूरिस्म इंडस्ट्री को बर्बाद कर सकते हैं .सच्चाई ये है की इनके जैसी भारत में कोई दूसरी शक्ति ही नहीं हैं .भारत के लिए इनको सहन करना अनिवार्य है. और इनके प्रति मोदी जी की असहिशुणता बेहद खतरनाक है ..सिर्फ उनके लिए ही नहीं बल्कि देश के लिए भी.
(नागर कोल के रहने वाले बी. जयमोहन जी एक जाने माने साहित्य आलोचक, समकालीन तमिल और मलयालम साहित्य के बेहद प्रभावशाली लेखकों में से एक हैं. “असहिष्णुता” पर लिखे उनके एक लेख का ये हिन्दी अनुवाद है।)
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